Muhnochwa Real Story

Muhnochwa Real Story: लाल आंखों वाला प्राणी या सिर्फ अफवाह? जानिए ‘मुंहनोचवा’ की कहानी, जिसने गाँवों में फैलाई थी दहशत

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Muhnochwa Real Story: लाल आंखों वाला प्राणी या सिर्फ अफवाह? जानिए ‘मुंहनोचवा’ की कहानी, जिसने गाँवों में फैलाई थी दहशत

Muhnochwa Real Story: 2002 के उत्तर प्रदेश-बिहार के ग्रामीण इलाकों में अचानक उभरी अफवाह ‘मुंहनोचवा’ ने रातों की नींद उड़ा दी। कुछ कहते थे लाल-पीली रोशनी वाला प्राणी, कुछ कहते थे हमले करता है मुंह नोच-नोच कर। सच क्या था, और कितनी अफवाह — पढ़िए पूरी कहानी।

क्या मुंहनोचवा सच था या सिर्फ खौफ की कहानी

Muhnochwa Real Story 2000 के दशक की शुरुआत में उत्तर प्रदेश और बिहार के कई गाँवों में एक अजीब-ओ-गरीब खौफ फैल गया, जिसका नाम था मुंहनोचवा। ये नाम सुनते ही लोगों की रूह कांप उठती थी। कुछ कहते थे कि ये कोई जीव है, कुछ कहते थे मशीन या कोई एलियन होता है, जबकि बहुसंख्यक का मानना था कि ये रात में उड़ने वाला प्राणी है, जिसमें लाल-पीली-हरी लाइट जलती है।

गाँवों में शाम होते ही खौफ का माहौल बनने लगता। लोग घरों की खिड़कियाँ बंद कर लेते; छतों पर नींद करना ख़तरनाक लगने लगता। छोटे बच्चे और बूढ़े बाहर निकलने से डरते थे। कहा जाता है कि मुंहनोचवा उन पर हमला करता है: मुंह नोच (मुँह को नोच लेना) – यानी चेहरे या होंठ को काट लिया जाना।

2002 के आसपास ऐसी कई रिपोर्टें प्रकाशित हुईं कि किसी गाँव में लोगों ने मुंहनोचवा को देखा, किसी ने डरना शुरू कर दिया। लो मे यह अफवाह थी कि ये उड़ने वाला प्राणी किसी की छत से टकरा कर भाग जाता है, कभी छतों के बीच उड़ता है, कभी पेड़ों के ऊँचे हिस्सों से झाँकता है।

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लेकिन अफ़वाह का दायरा बढ़ने के साथ कई सवाल भी उठने लगे। पहला ये कि कहीं कोई भरोसेमंद गवाह नहीं मिला जिसने साक्षात मुंहनोचवा से सामना किया हो। कई लोगों ने कहा कि उन्होंने ध्वनि सुनी, रोशनी देखी, पर कभी कोई पुष्टि नहीं हुई कि उसके पंजे या दांत द्वारा हमला हुआ हो।

दूसरी ओर, प्रशासन और वैज्ञानिकों ने इनियों की जांच करने की कोशिश की। इलाकों की पुलिस रिपोर्टों में अक्सर कहा गया कि कोई ठोस प्रमाण नहीं मिल रहा है। IIT कानपुर सहित कुछ वैज्ञानिक संस्थानों को भी खबर पहुंची, लेकिन उन्होंने भी कोई तथ्यात्मक दस्तावेजी प्रमाण नहीं पा सके।

उन लोगों की आँखों में चमकती लाल रोशनी… और डर जो नींद हराम कर दे

एक समाचार लेख में लिखा गया कि “दिन में लकड़सुंघवा, रात में मुंहनोचवा” — लोगों की कल्पनाएँ और डर मिलकर एक मिथक को जन्म देते हैं।

कई गाँवों में तो रात के समय लोग समूह बना कर सतर्क रहते थे; कोई नींद से पहले घंटा-घंटा जागता; कुछ लोग साथ बैठ कर गीत-भजन करते ताकि डर कम हो सके। बाजारों में मुंहनोचवा की कहानियाँ बेची जाती थीं — किसने देखा, किसने बच निकलने की कहानी सुनाई, किसका बच्चा डर के कारण बाहर नहीं गया।

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लेकिन समय के साथ ये खौफ फीका पड़ गया। मीडिया के बढ़ते संदेह, प्रशासन की चेतावनियों और लोगों की समझ-बूझ बढ़ने से मुंहनोचवा प्रकरण कहीं मिटने लगा। जो उजाले और रोशनी रात में डरावनी दिखती थीं, वे अब तारों की चमक, बिजली के खंभों की रोशनी, या किसी ड्रोन की झिलमिलाहट बन कर रह गईं।

आज मुंहनोचवा मुख्यतः एक लोककथा बन कर रह गया है — एक अफ़वाह की कहानी जिसे सुन-सुन कर कई रातों की नींद उड़ी थी। लेकिन इससे सीख ये मिली कि अंधविश्वास और संदेह कैसे समाज में भय का वातावरण बना सकता है।

मुंहनोचवा सच हो या न हो, उसकी कहानी हमें सावधान करती है: किसी भी अफ़वाह को सबूतों से आंकें, डर को न बढ़ने दें, और विज्ञान और तर्क को अपनाएँ।


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